आतंक का सही उत्तर क्या हो सकता है ?
इस विषय पर मित्रों से रात भर चर्चा करते रहने पर काफी संतोषजनक रूप से कुछ समाधानों के संकेत मिले हैं |
मैं इनको एक - एक करके आप सभी के सामने चर्चा के लिए प्रस्तुत करना चाहूँगा | विश्व के समाजों का ज्यादातर हिस्सा अब भी मध्य युग में जी रहा है जबकि राष्ट्र नाम की चिड़िया का अस्तित्व सिमटकर सिर्फ़ कबीले तक ही सीमित होता था | ऐसे वक्त में जीवन के मूल्यों को कबिलापंथी विचारकों को समझा पाना निश्चित दुरूह कार्य है |
इस आतंकवाद से निपटने के लिए व्यापक राष्ट्रीय एकता को जन्म देना होगा |
राष्ट्रीय एकता क्या है ................????????????????????????????????????????
कल एक मित्र से चर्चा करते समय उन्होंने कहा कि ऐसी संकटकालीन स्थिति का सामना पूरा राष्ट्र एक होकर कर रहा है , मैं उनके इस वक्तव्य पर अपना क्षोभ छुपा न सका | उनका तर्क था कि मीडिया के माध्यम से पूरा राष्ट्र इन घटनाओं पर खेद प्रकट कर रहा है , मुंबई को देश के कोने - कोने से रक्त दान एवं आर्थिक सहायता भेजी जा रही है ,पक्ष-विपक्ष दोनों ही एक सुर से आतंकियों कि निंदा कर रहे हैं .............किंतु मैंने पूछा कि किस विपदा में ऐसा नही होता | भुज से लेकर कारगिल तक , बिहार कि बाढ़ से लेकर सुनामी तक हम भारतीय इस कथित एकता का परिचय देते रहे हैं लेकिन जबकि राष्ट्र हित के मुद्दे जैसे समान नागरिक संहिता , आतंकवाद निरोधक कानून ,धारा ३७० की समाप्ति , सामाजिक अन्याय का विरोध , बंगलादेशी घुसपैठिओं की वापसी , मतान्तरण , केन्द्रीय जांच एजेन्सी इत्यादि आतंकवाद की रोकथाम हेतु उठाये जाते हैं तो देश का नागरिक वामपंथ , धर्मनिरपेक्ष ,मुसलमान , दक्षिणपंथी , अवसरवादी इत्यादि में साफ़ तौर पर बँटा हुआ नजर आता है | इसी ने राष्ट्र की अवधारणा को इतना कमजोर कर दिया है कि हम आतंकवादियों के समक्ष घुटने टेकते हुए नजर आ रहे हैं | व्यापक युद्ध तो सिर्फ़ इन दीवारों को गिराकर राष्ट्रीय एकता के ही नाम पर लड़ा जा सकता है | आइये अब भी समय है , हम इस पहल को स्वीकार करें | अपना मत उनको ही दें जो इन मुद्दों पर कोई समझौता नहीं चाहते हों , तभी यह लड़ाई जीती जा सकेगी |
"सत्यमेव जयते "
3 comments:
लड़ाई मैदान में जीतने से पहले दिमाग में जीती जाती है। भयातुर लोग, बेशर्म नेता, भ्रष्ट मशीनरी कैसे उन्मादियों का सामना कर सकते हैं? यह तो शठे शाठ्यम समाचरेत के माध्यम से ही संभव है क्या कोई इस ओर विचार करता नज़र आता है?
वोट की राजनीति ने आतंकी हमलों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति खत्म कर दी है, खुफिया तंत्र की नाकामयाबी की वजह भी सत्ता है, संकीर्ण हितों- क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, लिंग- से ऊपर उठ कर सोचने वाले नेता का अभाव तो समाज को ही झेलना होगा, मुंबई हमलों के बारे में सुनने के बाद मैं काफ़ी बेचैन हूँ. सवाल है ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी का या कुछ और. इसे मैं सिर्फ़ राजनीतिक नाकामी कहूंगा जिसकी वजह से भारत में इतनी बड़ी आतंकवादी घटना हुई.
राष्ट्र की होवे परिभाषा,संस्कृति के आधार.
तब ही तय हो सकता है, मित्र-शत्रु का सार.
मित्र-शत्रु व्यापार,चल रहा वोट-तन्त्र से.
कैसे हो सकता मुकाबला, आतंकवाद से.
कह साधक कवि,क्या कर सकते उनसे आशा.
जो ना समझते संस्कृति से हो राष्ट्र-परिभाषा.
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