मित्रों आज सुरेश चिपलूनकर जी का एक आलेख जिसका सार ' भारतीय परम्पराएं बनाम विदेशी नववर्ष ' , कहा जा सकता है , को पढ़कर मन में एक नई पीड़ा ने जन्म ले लिया | नववर्ष का प्रारम्भ ही विचलित कर गया |
सुरेश जी की भारतभक्ति पर तो कोई देशद्रोही ही प्रश्न कर सकता है | ऐसे में उनके विचारों से पूर्णतया सहमत ना होने के बाद भी नववर्ष के बारे में उनकी लेखनी ने आत्मा को काफी बेचैन कर दिया है | आख़िर किस हद तक हम विदेशी परम्पराओं की स्वीकार्यता को सह सकते हैं |
मुझे इस विषय का गहरा अद्ध्ययन नहीं है , फ़िर भी मेरा यह मानना है की सरलतम ही स्वीकृत हो सकता है |
तो आप मार्गदर्शन करें कि क्यों विदेशी परम्पराएं भारतीय उत्सवों पर भारी पड़ती जा रहीं हैं ? कैसे हम अपने सामाजिक संस्कारों का वजूद बचा कर रख पाएंगे ? अगर यही गति रही तो क्या एक दिन भारत के अपने पर्व और त्यौहार इतिहास की ही शोभा बनकर नहीं रह जायेंगे ? अपनी परम्पराओँ के सरलीकृत प्रचार - प्रसार का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या हो सकता है ?
आप के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा में .................................................................!
" नववर्ष मंगलमय हो | "
" सत्यमेव जयते || "
Friday 2 January, 2009
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8 comments:
मेरे विचार से तो यह विदेशी ही है पर हर विदेशी चीज को न अपनाने की जिद मैं नहीं करता . उत्तम विद्या लीजिए जदपि मूर्ख पै होइ !
भाई हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की है . जब सारा विश्व मेरा परिवार है तो क्या स्वदेशी क्या विदेशी .
saare vishv ki khushi me khush hona chaahiye magar apni parampraayen bi usi utsah se manaani chhiye kyaa amerika me geeta nahi padhaai jaa rahi?
अरे भई ऐसे टेन्शन लोगे, तो पैंट शर्ट, कार मोटर सभी कुछ विदेशी है। क्या क्या छोडोगे।
चिन्ता छोडो सुख से जियो, खाओ पियो मौज करो और किसी भी बहाने से ही से ही सही शुभकामनाएं देने और लेने में क्या जाता है।
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऍं।
निर्मला जी से सहमत, मेरे कहने का मंतव्य भी यही है कि भले ही विदेशी को अपनाओ लेकिन "अपना" भी मत छोड़ो, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं रहा… जो भी व्यक्ति भारतीय संस्कृति, परम्पराओं की बात करता है, सेकुलरों और वामपंथियों द्वारा उसे दकियानूसी, पुरातनपंथी, साम्प्रदायिक, हिन्दूवादी, संकीर्ण घोषित करने की होड़ लग जाती है, पश्चिम से अपनाना ही है तो समय की पाबन्दी अपनाओ, सफ़ाई पसन्द स्वभाव अपनाओ, फ़्री सेक्स अपनाने की क्या आवश्यकता है? उज्जैन में गुड़ी पड़वा के रोज प्रातःकाल सूर्य को अर्घ्य, शिप्रा नदी की आरती, व शाम को देशभक्ति गीतों का एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, ऐसा प्रत्येक शहर, गाँव, कस्बे में किया जा सकता है… 31 दिसम्बर की तरह ही धूमधाम से प्रत्येक हिन्दू उत्सव भी मनाना चाहिये…
नमस्कार जी,
इसे भारतीय और विदेशी ना समझकर ये समझो कि सभी एक ही ईश्वर के बालक हैं. ये देश विदेश की सीमायें तो हमने बना दी हैं. इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है. वे भी तो हमारा अनुसरण करते हैं.
देशी डब्बे में विदेशी माल है . यह पाश्चात्य संसकृति का प्रभाव है .
भाई जहां तक बात अपनाने की है हम ने आज तक विदेशियो की गन्दी बाते ही अपनाई है, अच्छी बात एक भी नही अपनाई.... यानि हम कब ठीक होगे, पता नही सुरेश जी की सभी बातो से मै सहमत हूं.
धन्यवाद
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